असाधारण व्यक्तित्व के धनी पं. दीनदयाल उपाध्याय एक महान देशभक्त, कुशल संगठनकर्ता, मौलिक विचारक, दूरदर्शी, राजनीतिज्ञ ,पत्रकार और प्रबुद्ध साहित्यकार थे. आजादी के बाद देश की दशा पर उन्होंने गहन चिंतन किया तथा पूंजीवाद, साम्यवाद और समाजवाद के मुकाबले एकात्म मानववाद का दर्शन प्रस्तुत किया. एकात्म मानववाद वास्तव में भारतीय संस्कृति का ही मौलिक चित्रण है. भारतीय संस्कृति का दृष्टिकोण एकात्मवादी है तथा वह सम्पूर्ण जीवन तथा सम्पूर्ण सृष्टि का समन्वित विचार करती है. उन्होंनें कहा कि विशेषज्ञों की दृष्टि में टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना उचित हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह उपयुक्त नहीं है.
अंग्रेजी शासन काल में ”स्वराज” ही सबका एकमात्र लक्ष्य था लेकिन स्वराज के बाद हमारी क्या क्या प्राथमिकताएं होंगी तथा हम किस दिशा में आगे बढे़गे ? इस बात पर ज्यादा विचार व चिंतन ही नहीं हुआ. पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा कि हमें ”स्व” का विचार करने की आवश्यकता है. बिना उसके ”स्वराज्य” का कोई अर्थ नहीं. स्वतन्त्रता हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती. जब तक हमें अपनी असलियत का पता नहीं तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है. परतंत्रता में समाज का ”स्व” दब जाता है. इसीलिए राष्ट्र स्वराज्य की कामना करता हैं जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें. प्रकृति बलवती होती है, उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से नाना प्रकार के कष्ट होते हैं. प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती. आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं, ऐसा व्यक्ति प्रायः उदासीन एवं अनमना रहता है. उसकी कर्म-शक्ति या तो क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर वि-पथगामिनी बन जाती है. व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक प्रकार की व्याधियों का शिकार हो जाता है, आज भारत की अनेक समस्याओं का मूल कारण यही है. अग्रेजी शासन की दासता से मुक्ति पाने के बाद हमारी प्राथमिकता आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता होनी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य से देशवाशियों को इसकी आत्मानुभूति नहीं हुई. संस्कृति हमारे देश की आत्मा है तथा वह सदैव गतिमान रहती है. इसकी सार्थकता तभी है जब देश की जनता को उसकी आत्मानुभूति हो. देश को किस मार्ग पर चलना चाहिए इस पर चिंतकों में मतभेद था कुछ अर्थवादी ,कुछ राजनीतिवादी तथा कुछ मतवादी दृष्टिकोण के थे , इनमें से अलग हट कर पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होनें कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की विशेषता यह है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है. इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है. संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मज़हब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है.
अंग्रेजी शासन काल में ”स्वराज” ही सबका एकमात्र लक्ष्य था लेकिन स्वराज के बाद हमारी क्या क्या प्राथमिकताएं होंगी तथा हम किस दिशा में आगे बढे़गे ? इस बात पर ज्यादा विचार व चिंतन ही नहीं हुआ. पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा कि हमें ”स्व” का विचार करने की आवश्यकता है. बिना उसके ”स्वराज्य” का कोई अर्थ नहीं. स्वतन्त्रता हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती. जब तक हमें अपनी असलियत का पता नहीं तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है. परतंत्रता में समाज का ”स्व” दब जाता है. इसीलिए राष्ट्र स्वराज्य की कामना करता हैं जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें. प्रकृति बलवती होती है, उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से नाना प्रकार के कष्ट होते हैं. प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती. आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं, ऐसा व्यक्ति प्रायः उदासीन एवं अनमना रहता है. उसकी कर्म-शक्ति या तो क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर वि-पथगामिनी बन जाती है. व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक प्रकार की व्याधियों का शिकार हो जाता है, आज भारत की अनेक समस्याओं का मूल कारण यही है. अग्रेजी शासन की दासता से मुक्ति पाने के बाद हमारी प्राथमिकता आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता होनी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य से देशवाशियों को इसकी आत्मानुभूति नहीं हुई. संस्कृति हमारे देश की आत्मा है तथा वह सदैव गतिमान रहती है. इसकी सार्थकता तभी है जब देश की जनता को उसकी आत्मानुभूति हो. देश को किस मार्ग पर चलना चाहिए इस पर चिंतकों में मतभेद था कुछ अर्थवादी ,कुछ राजनीतिवादी तथा कुछ मतवादी दृष्टिकोण के थे , इनमें से अलग हट कर पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होनें कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की विशेषता यह है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है. इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है. संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मज़हब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है.
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने मानव शरीर को आधार बना कर राष्ट्र के समग्र विकास की परिकल्पना की. उन्होनें कहा कि मानव के चार प्रत्यय है पहला मानव का शरीर , दूसरा मानव का मन , तीसरा मानव की बुद्धि और चौथा मानव की आत्मा. ये चारोँ पुष्ट होंगें तभी मानव का समग्र विकास माना जायेगा. इनमें से किसी एक में थोड़ी भी गड़बड़ है तो मनुष्य का विकास अधूरा है. जैसे यदि किसी के शरीर में कष्ट हो और उसे खाने के लिए 56 प्रकार का भोग दिया जाय तो उसकी खाने में रूचि नहीं होगी. इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति बहुत ही स्वादिस्ट भोजन कर रहा हो और उसी समय यदि उसे कोई अप्रिय समाचार मिल जाय तो उसका मन खिन्न हो जायेगा तथा भोजन का त्याग कर देगा. भोजन का स्वाद तो यथावत है, दुखद समाचार मिलने के पूर्व वह जैसा स्वादिस्ट था अब भी वैसा ही स्वादिस्ट है लेकिन अप्रिय समाचार मिलने से उस व्यक्ति का मन खिन्न हो गया और उसके लिए वह भोजन क्लिष्ट हो गया. यानी भोजन करते वक्त “आत्मा” को जो सुख मिल रहा था वह मन के दुखी होने से समाप्त हो गया. पं. दीनदयाल जी ने कहा कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारोँ ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को कांटा निकालने के लिए निर्देशित करती है और हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.
सामान्यतः प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारोँ की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी तथा इसे राष्ट्र के परिपेक्ष्य में प्रतिपादित करते हुए कहा कि राष्ट्र की स्वाभाविक प्रवृति ही उसकी संस्कृति है. उन्होंने कहा कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक बोली-भाषा, खानपान, वेशभूषा एवं रहन-सहन भले ही सबका अलग अलग हो पर समूचे भारत की आत्मा एक है. जिस प्रकार मानव शरीर के निर्माण व संचालन में प्रत्येक अंग का योगदान होता है उसी प्रकार का योगदान देश के निर्माण व संचालन में सभी प्रान्तों व क्षेत्रों का होता है. सबको यह नहीं सोचना है कि देश ने मेरे लिए क्या किया बल्कि यह सोचना है कि हमने देश के लिए क्या किया ? स्वहित को त्यागकर राष्ट्रहित की चिंता करना ही हमारी मूल संस्कृति है यदि हमारी प्रवृति बदलेगी तो व्याधि बढ़ेगी ही. उन्होंने कहा कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी. विश्व को यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्त्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं क्योंकि यही हमारी धरोहर है. पं. उपाध्याय ने कहा कि अर्थ, काम और मोक्ष के बजाय धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है. इसी भावना के साथ हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं.
लेखक - अशोक बजाज , पूर्व अध्यक्ष जिला पंचायत रायपुर
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